साखी -1-कबीरा जब हम पैदा हुये जग हसे हम रोये
ऐसी करनी कर चलो हम हसे जग रोय
भजन
मुखड़ा-चदरिया झीनी रे झीनी राम नाम रस भीनी
चदरिया झीनी रे झीनी
1-अष्ट कमल का चरखा बनाया पॉँच तत्व की पुनी
नौ दस मास बुनन को लागे मूरख मैली किनी
चदरिया झीनी रे झीनी
2-जब मोरी चादर बन घर आई रंगरेज को दिनी
ऐसा रंग रंगा रंगरेज ने लालो लाल कर दिनी
चदरिया झीनी रे झीनी
3-चादर ओड शंका मत करियो ये दो दिन तुमको दिनी
मूरख लोग भेद नहीं जाने दिन दिन मेलि किनी
चदरिया झीनी रे झीनी
4-ध्रुव प्रहलाद सुदामा ने ओडी शुकदेव निर्मल किनी
दास कबीर ने ऐसी ओडी ज्यों की त्यों रख दिनी
चदरिया झीनी रे झीनी
शब्दार्थ - अष्टकमल = नाभिस्थान , पेट , हठयोग में वर्णित मणिपूर चक्र नाभि स्थान में माना है । इसे हठयोगी दस दलकमल मानते हैं , किन्तु कबीर साहेब इसे अष्टकमल का कहते हैं । अंततः अष्ट या दस कमल का लाक्षणिक अर्थ नाभिस्थान एवं पेट ही है और इसका सीधा अर्थ है गर्भाशय । पूनी = धुनी हुई रुई की मोटी बत्ती जो सूत कातने के काम में आती है ।
भावार्थ - हे साधक ! यह मन सहित शरीर - चादर बड़ी महीन , बड़ी उत्तम और बड़े काम की है । इसका अच्छा उपयोग कर लेने वाला कृतार्थ हो जाता है । परंतु इसका अच्छा उपयोग तब माना जायेगा , जब यह राम - नाम के रस में भीनी हो , ओतप्रोत हो । राम - नाम रस भी लाक्षणिक है । इसका अर्थ है , मन विषयों से विरत होकर आत्मलीन हो ।
माता का गर्भाशय मानो चरखा है और पांच तत्त्व की पूनी है , क्योंकि जड़तत्त्व रूपी रुई से यह शरीर - चादर बुनी जाती है । इस शरीर - चादर के बुनने में नौ या दस महीने लगते हैं । परंतु हाय , यह मूर्ख मनुष्य इस चादर को विषय - वासनाओं में डालकर मैली कर देता है ।
जब मेरी शरीर - चादर बुनकर घर में आ गयी , अर्थात शरीर सबल होकर साधना के योग्य हो गया , तब इसे रंगने के लिए सद्गुरु - रंगरेज को दिया गया । सौभाग्य की बात है कि सद्गुरु - रंगरेज ने इसे इतना गाढ़ा रंगा कि लाल - लाल कर दिया अर्थात सद्गुरु ने आत्मज्ञान का ऐसा गहरा उपदेश दिया कि जीवन उसमें तरबतर हो गया , ओतप्रोत हो गया ।
इस शरीर - चादर को ओढ़कर तुम्हें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह सदा के लिए तुम्हारी है । यह तो प्रकृति तथा कर्मों के द्वारा तुम्हें थोड़े दिनों के लिए मिली है । मूर्ख मनुष्य उक्त रहस्य को नहीं समझता । वह इसमें अहंता - ममता करके इसका दुरुपयोग करता है , और इसको उत्तरोत्तर मैली करता जाता है । इस शरीर - चादर को ध्रुव , प्रहलाद और सुदामा ने ओढ़ा , और इसका अच्छा उपयोग किया । शुकदेव स्वामी ने इसे निर्मल कर लिया । विनम्र कबीर ने तो इसे इस ढंग से ओढ़ी कि ज्यों - की - त्यों उतारकर रख दी ।
विशेष - बोधवान पुरुष जीवन - काल में ही जीवन का अंत मानते हैं और वे शरीर में रहते हुए उसे मन से त्यागे रहते हैं । निर्दोष जीवन जीना ही ज्यों - की - त्यों शरीर - चादर को रख देना है ।
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