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घूँघट के पट खोल रे / ghunghat ke pat khol re

भजन 

घूँघट के पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे ॥टेक ॥ 

घट घट में वहाँ साईं बसत है, कटुक वचन मत बोल रे 

तो को पीव मिलेंगे 

घूँघट के पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे ॥1 ॥

धन जोबन का गर्ब न कीजै , झठा है पंच रंग चोल रे 

तो को पीव मिलेंगे 

घूँघट के पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे ॥२ ॥ 

सुन्न महल में दियना बारिले , आशा से मत डोल रे 

तो को पीव मिलेंगे 

घूँघट के पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे  ॥३ ॥ 

जोग जुगत से रंग महल में , पिया पायो है अनमोल रे 

तो को पीव मिलेंगे 

घूँघट के पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे ॥४ ॥ 

कहैं कबीर आनन्द भयो है , बाजत अनहद ढोल रे 

तो को पीव मिलेंगे 

घूँघट के पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे ॥५ ॥ 

शब्दार्थ - घूंघट का पट = अविद्या का परदा । पीव = पति , चेतन देव । पंचरंग चोल - पांच विषयों का चोला शरीर । अनहद ढोल - आत्मा की आवाज , विवेकज्ञान । 


ये भावार्थ - हे मनोवृत्ति ! तू अविद्या का परदा हटा दे , तब तुझे निज चेतन पतिदेव के स्वरूप का साक्षात्कार होगा ।सभी देहों में तेरा सजातीय चेतन देव विद्यमान है । अतएव किसी के प्रति कटु शब्द का प्रयोग कभी मत करो । 


भावार्थ - ये मनोविकार रूपी डाकू हमारे हृदय - घर को मानव - शरीर रूपी  संपत्ति , ऐश्वर्य और जवानी का अहंकार न करो । यह पांच विषयों से सुसज्जित शरीर क्षणिक एवं नाशवान है । 

अपने हृदय - मंदिर को मोह - माया से शून्य करके उसमें विवेकज्ञान का दीपक जला लो । संसार के भोगों की आशा में होकर मत भटको । 

साधना द्वारा चित्त एकाग्र करने पर इस शरीर रूपी उत्तम भवन में आत्मदेव रूपी वह उत्तम पति मिल जाता है जिसकी कीमत नहीं अदा की जा सकती । मन अंतर्मुख होने पर ही स्वरूपसाक्षात्कार एवं स्वरूपस्थिति होती है । 

कबीर साहेब कहते हैं कि उक्त दशा में पूर्ण आनंद की स्थिति होती है , और वहां विवेकज्ञान का निस्सीम बाजा बजता है ।

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