भजन
अवसर बार बार नहिं आवै॥टेक ॥
जो चाहो करि लेव भलाई , जन्म जन्म सुख पावै ॥१ ॥
तन मन धन में नहिं कहुँ अपना , छाँड़ि पलक में जावै ॥२ ॥
तन छूटे धन कौन काम के , कृपिन काहे को कहावै ॥३ ॥
सुमिरण भजन करो साहब को , जासे जिव सुख पावै ॥४ ॥
कहहिं कबीर पग धरे पंथ पर , यम के गण न सतावै ॥५ ॥
शब्दार्थ - कृपिन = कृपण , कंजूस । यम वासना ।
भावार्थ - कल्याण - साधना के लिए सुनहरा समय बारंबार नहीं मिलता । यह जवानी , यह स्वास्थ्य , यह सत्संग दुर्लभ हैं और तुम्हें मिले हैं । अतएव साधना में इनका उपयोग कर लो । यदि समझ में आये , तो दूसरों की भलाई का काम कर लो । इससे तुम्हें आज तो सुख मिलेगा ही अगले जन्मों में भी सुख मिलेगा ।
शरीर , मन और धन का जहां तक पसारा है , इनमें कुछ भी अपना नहीं है । इनको क्षण - पल में छोड़कर चल देना है । शरीर छूट जाने पर धन किस प्रयोजन का होगा , फिर जीते जी कंजूस क्यों बनते हो ! सद्गुरु का स्मरण करो , उनकी सेवा करो और उनसे प्रेरणा लेकर सन्मार्ग पर चलो । इसी से जीव को सच्चा सुख मिलेगा ।
कबीर साहेब कहते हैं कि जो सद्गुरु से आत्मबोध पाकर सुपथ पर पैर रखता है उसे वासनाएं संताप नहीं देतीं ; क्योंकि वह वासना विजयी होता है ।
विशेष- सद्गुरु ही जीव को सुपथ बताने वाला साहेब है , स्वामी है । उनकी शरण से ही जीव का उद्धार है । अंतत : जीव ही शिव है । सारे ज्ञान - विज्ञान का साहेब जीव ही है । सद्गुरु से स्वरूपबोध पाकर जीव अपने में कृतकृत्य हो जाता है ।
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