' राम रमै सोई ज्ञानी '
साखी - रग - रग में बोले रामजी , रोम - रोम रंकार ।
सहजे ही धुन होत है , सोई सुमिरण सार ।
भजन -
टेक - राम रमै सोई ज्ञानी मोरे साधु भाया
राम रमै सोई ज्ञानी ॥
1 . शबद रटाऐ तोता मैना , बोले वेद की वाणी हो
भरम मिटे न गुरू बिना रे , मरम गुरू से आणी ॥
मोरे साधु भाया राम रमै सोई ज्ञानी ॥
2. दूध पिलाए माँ कहलाए , पिता कहन समझाई
को जाने को मात - पितारे , भरम भाव न जानी ।
मोरे साधु भाया राम रमै सोई ज्ञानी ॥
3 . मरना रे जीना धरम शरीरा , करम रंक फकीरा हो
मुरदे को तो धरम बतावे , चैत रूप नहीं जाना ॥
मोरे साधु भाया राम रमै सोई ज्ञानी ॥
4 . माटी का सब बामण बणिया , माटी का सकल पसारा हो
इस माटी में सबको मिलना , केह गए साहब कबीर ।
मोरे साधु भाया राम रमै सोई ज्ञानी ॥
संक्षिप्त भावार्थ - इस पद में कबीर साहब जो घट - घट में व्याप्त राम है , उसकी अनुभूति लगन व मेहनत से करते हैं वही सच्चा गुरुमुख ज्ञानी है । इस पद में भी कबीर यह संदेश देते हैं कि जीवमात्रको भरम ( समझ बोध आदि ) आने पर समभाव व समदृष्टि पैदा होगी ही क्योंकि हर मानव मिट्टी ( पंच भौतिक शरीर ) का ही बना है और मिट्टी में ही मिलेगा । परन्तु मनुष्य अज्ञानतावश शरीर को जलाने या गाड़ने पर ही झगड़ा करते हैं जो नासमझी का परिचायक है ।
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