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अवधू भजन भेद है न्यारा / avdhu bhajan bhed he nyara

साखी - 1-अलख लखाला लच लगा , कहत न आवे बेण 

अरे निज मन धँसा स्वरूप में , सतगुरु दिनी सेण 

2-उनमून लगी या सुन्न में , निशदिन रहे गलतान 

तन मन की कछु सुध नहीं , पाया पद निर्वाण 

भजन 


अवधू ! भजन भेद है न्यारा ॥ टेक ॥ 

जानेगा जानन हारा अवधू ! भजन भेद है न्यारा ॥


क्या गाये क्या लिखि बताये , क्या भरमे संसारा 

क्या संध्या तरपन के कीन्हैं , जो नहिं तत्त्व विचारा ॥१ ॥ 

अवधू ! भजन भेद है न्यारा


मूड़ मुड़ाये सिर जटा रखाये , क्या तन लाये छारा ।

क्या पूजा पाहन की कीन्हैं , क्या फल किये अहारा ॥२ ॥ 

अवधू ! भजन भेद है न्यारा


बिन परचे साहिब हो बैठे , विषय करै व्यापारा । 

ग्यान - ध्यान मरम न जाने , वादे करे हंकारा ॥3 ॥

अवधू ! भजन भेद है न्यारा


अगम अथाह महा अति गहिरा , बीज न खेत निवारा । 

महा सो ध्यान मगन है बैठे , कपट करम की छारा ॥४ ॥ 

अवधू ! भजन भेद है न्यारा


जिनके सदा अहार अंतर में , केवल तत्त विचारा । 

कहैं कबीर सुनो हो गोरख , तारौं सहित परिवारा ॥५ ॥ 

अवधू ! भजन भेद है न्यारा

शब्दार्थ - अवधू - त्यागी । भजन भेद = भजन - साधन का मर्म । साहिब = स्वामी , गुरु - साधु । वादे - वाद , विवाद । बीज = वासना । खेत - ममता । निवारा = मिटा देना । छारा- धूल , नष्ट । परिवारा - संगत । 

भावार्थ - हे त्यागियो ! भजन - साधना का रहस्य बाह्याडंबर से परे है । यदि सत्ता की अंतिमी सत्यता जड़ और चेतन का विचार नहीं है , तो प्रवचन देने , लिखकर पोथियों से बताने से क्या होगा , तीर्थों के नाम पर संसार में भटकने से भी क्या होगा , और संध्या - तर्पण करने से भी क्या होगा ! 

चाहे कोई मूड़ मुड़ाये , चाहे सिर पर जटा रखाये और चाहे शरीर पर राख लगाये , इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है । पत्थर के देवी - देवता पूजने से क्या मिलेगा और अन्न छोड़कर फलाहारी होने से भी क्या मिलेगा । न आत्मा - अनात्मा का परिचय है और न बंध - मोक्ष का ज्ञान है और न साधना है ; परंतु संत - सद्गुरु बनकर बैठ गये और अपने मन - इंद्रियों को रात - दिन विषयों में लगाकर सड़ते हैं । 

आत्मज्ञान और ध्यान - समाधि में स्थित होने का रहस्य नहीं जानते । केवल अहंकारपूर्वक वाद - विवाद करते हैं । आत्मज्ञान का मर्मी साधक ममता के खेत से वासना के बीज को उखाड़ फेंकता है और इस महा ध्यान में बैठकर डूब जाता है जो अगम , अथाह , महान और अत्यंत गहरा है । वहां काया - कपट के सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं । वही साधक अपने गंतव्य को पहुंचा हुआ है जिसका आंतरिक आहार केवल आत्मतत्त्व विचार है । 

कबीर साहेब कहते हैं कि हे गोरखपंथियो ! दिखावारहित इस चित्तशुद्धि , आत्मविचार और आत्मशांति के पथ पर चलकर ही कोई संगति सहित अपना उद्धार कर सकता है।

 विशेष - तत्त्व कहते हैं अंतिमी सत्यता को । जड़ और चेतन विश्वसत्ता की अंतिमी सत्यता है । इनके अपने अनादि निहित गुण - धर्मों से जगत नित्य प्रवहमान है । इसके लिए इनसे पृथक किसी अन्य देवता या ईश्वर की कल्पना करना भटक जाना है । जड़ से सर्वथा पृथक अपना शुद्ध चेतन स्वरूप है , जो परम तत्त्व है । वासनाओं को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित होना जीवन का चरम उत्कर्ष है । आत्मविश्राम एवं आत्मलीनता तत्त्वविचार का परम फल है । यह आचरण और चित्त की शुद्धि से संभव है। 

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