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थारा रंगमहल में अजब शहर में / thara rang mahal me

थारा रंगमहल में अजब शहर में


साखी


1- कबीर जितनी आत्मा , उतना सालगराम ।

बोलन हारा पूजिए , नहिं पाहन सो काम।।


2- सब बन तो तुलसी भये , पर्वत सालिगराम ।

सब नदियाँ गंगा भई , जब जाना आतम राम।।


भजन 


टेक - थारा रंग महल में अजब शहर में

आजा रे हंसा भाई

निरगुण राजा पे सिरगुण सैज बिछाई ॥


1- हाँरे भाई

इणा देवलिया में देव नहीं , झालर कूटे गरज कसी ॥

थारा रंग महल में , अजब शहर....


2- हाँरे भाई , बेहद की तो गम नाहीं नुगरा से सैण कसी ॥ 

थारा रंग महल में , अजब शहर.....


3- हाँ रेभाई अमृत प्याला भर पावो भाईला से भ्राँत कसी ॥

थारा रंग महल में , अजब शहर


4- हाँरे भाई , कहै कबीर विचार , सैण माहि सैण मिली ।

थारा रंग महल में , अजब शहर....


मालवी शब्द 

रंगमहल - शरीररूपी । 

देवलिया - देवालय झालर - घण्टी 

गरज - स्वार्थ । 

कूट - कूटना , बजाना । 

अजब शहर - विशेष शहरयाबाजार 

भ्रांत - कपट , हेल , नफरत 

सैण - ईशारा , अंतर की परस 


संक्षिप्त भावार्थ - साहब कबीर कहते हैं कि ईश्वर का सच्चा मंदिर तो मानव का शरीर है जो उस निर्गुण निराकार की सैज है , आराम स्थल है , निवास स्थल है , जिसकी प्रत्यानुभूति इन हदों को जो हमने यहाँ बनाई है- जाति , धर्म , लिंग , मजहब , देश आदि से ऊपर उठने पर ही हम उसकी अनुभूति को पाकर प्रेम के अमृत रूपी प्याले को समान रूप से सबको पिला सकेंगे ।


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