' जावो नुगरी काया थारो '
साखी
1- ऊँचे महल चुनावते सरबन कली दुलाय ।
ते मंदिर खाली पड़े , रहे मसाना जाय।।
2- ऊँचे महल चुनावते , करते होड़म होड़
ते मंदिर खाली पड़े , गये पलक में छोड़।।
भजन
टेक - जावो नुगरी काया थारो कांइ गुणगावां
कांई गुण गावां थारो काई जस गांवा।
मेहल बनाया हँसा रेवा नी पाया ।।
1- काटी लेणा घाँस बांध लेना टटिया
कठे तो गयो इणी नगरी को राजा
जावो नुगरी काया थारो कांइ गुणगावां ।।
2- बालू की भींत अटारी का चढ़ना
ओछे से प्रीत कटारी का मरना
जावो नुगरी काया थारो कांइ गुणगावां ।।
3- गादी गलीचा थारा धर्या हे महल में
एक दिन जलेगा , काया लकड़ी के संग में
जावो नुगरी काया थारो कांइ गुणगावां ।।
4- कहे कबीर साहब , जुग जुग जिवणा
इणी ममता ने मार भसम कर पिवणा
जावो नुगरी काया थारो कांइ गुणगावां ।।
मालवी शब्द
यश - प्रसिद्धि, बढ़ाई
जस - गुणगान करना ,
मरम - समझ, भेद
टटिया - टाटी ( झोपड़ी लकडी की दीवार ) लकड़ी सांटीनी
भींत - दिवार ( मिट्टी की )
भींत - ओछ - सकरा, निम्न सोच वाला
प्रीत - लगाव, प्रेम, जुड़ाव
घरया - रखा हुआ,
भसम - भस्म नष्ट करना, बारीक
संक्षिप्त भावार्थ - इस पद में कबीर साहब ये भौतिक वैभवताएँ वा भौतिक शरीर जो स्थाई नहीं तथा जिन्होंने अपने रहने के लिए ये बड़े - बड़े आलिशान महल अटारिया बनाई है वे भी इसमें हमेशा नहीं रह पायेंगे । एक दिन मकान
खाली रह रह जाये। उसी प्रकार इस शरीर में से भी जीवात्मा निकल जाएगी और अपने आश्रय की सभी वस्तुएँ यहीँ रह जाएगी। अतः ममतामयी विषयी आसक्तियों से पलटकर मुड़कर या भस्म कर सद्कर्म सद्भाव व आत्मीय प्रेम का पथिक बन जा।
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