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धन्य तेरी करतार कला का / dhanya teri kartar kala ka

धन्य तेरी करतार कला का


साखी


1- अनन्त नाम जो ब्रह्म का , तिनका वार न पार ।

मन माने सो लीजिए , कहै कबीर विचार।।


2- कबीर लोहा एक है , घढ़ने में है फेर ।

ताहि का बख्तर बना , ताहि की शमशेर ।।


भजन


टेक- धन्य तेरी करतार कला का , पार नहीं कोई पाता है ।


1. निराकार भी होकर स्वामी , सबका तू पालन करता है

निराकार निर्बधन स्वामी , जनम मरण नहीं धरता है ।


2. तेरी सत्ता का खेल निराला , बिरला ही मेहरम पाता है

जिनपर कृपा भई निज तेरी , तू वाको दर्श दिखाता है ।


3. ऋषि - मुनि और सन्त महात्मा , निश दिन ध्यान लगाता है

चार खान चौरासी के माहि तू हीं नजर एक आता है ।


4. पत्ते - पत्ते पर रोशनी तेरी , बिजली सी चमक दिखाता है

छकित भया मन बुद्धि तेरी जीवादास गुण गाता है ।


मालवी शब्द 

करतार - परमात्मा , ईश्वर । 

निराकार - जिसका कोई आकार न हो । 

निर्बन्धन - बन्धन रहित 

छकित - नशे में डूबना , छकना , बेहोशी  



संक्षिप्त भावार्थ - इस पद में जीवादासजी महाराज कहते हैं कि जो सबका स्वामी है , पालनहार जो एक है , निराकार है , निर्गुण है जिसे ऋषि - मुनि ज्ञानियोंनि वेद शास्त्र , भागवतगीता के मार्फत या हर खानि व योनि में एक ही  नजर आया और यही पत्ते - पत्ते , जरे - जरें में उसकी रोशनी , उसकी लालीया रूहानियत को देखा जो सर्वोपरि सत्ता है ।


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