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म्हारी बोली लखेन कोय / mhari boli lakhe na koy

 ' म्हारी बोली लखेन कोय '


साखी- 


1- साधु हजारी कापड़ा , तामे मल न समाय ।

साकट काली कामली , भावे तहाँ बिछाय।।


2- साधु चाल जो चालही , साधु कहावे सोई

बिना साधन जो सुध नहीं , तो साधु कहाँ से होई।।


भजन 


टेक - म्हारी बोली लखे न कोय , म्हारी हैली वो

म्हारा मेहरमरा साधू कोई नहीं है

अबे किन संग करूँ व्यवहार म्हारी हैली वो

म्हारा मेहरमरा साधू कोई नहीं है


1- मैं तो पूरबियाँ पूरब देश का होजी

म्हारी बोली लखे ना कोई , म्हारी बोली तो वहीं लखे

जो अवधू पूरबलियाँ होय ॥.


2- साधु हुआ तो क्या हुआ , चौदिस न फूटी बास

बीज कुमति का ना जल्या , फिर ऊगन वाली आस ॥


3- कड़वा पाना ने कड़वा बेलड़ा , जाका फल भी तो कड़वा होय

सिन्ध पाकी जद जानजो हो , घणा तो मीठा होय ॥


4- कलजुगां में काला चार है , एक कोयल दूजा काग

तीजो बाडी को भंवरो , चौथा है बासुक नाग ।


5- सांटा से गुड़ होत है , गुड कैरी शक्कर होय 

सतगुरु मिल मिश्री भया, नाम धरायो झीणी खांड।


6- के तो कोरा तिल भला, लेना रे तेल कड़ाय

अध बीच रो छुट्यो डावड़ो, दोई दीना से जाय।


6- धाऊ लागि ने बेल्डॉ जला हो गयो बीज को नाश

कहे कबीर धर्मिदास ने नही उगन वाल्डी आस।


मालवी शब्द

अवधू- नाथ संप्रदाय का सम्बोध , चौदिश- चारो दिशा , 

पूरबलिया - पूर्व का , 

प्रारब्ध धरयो - रखा , 

डावडो - व्यक्ति ( लोग ) , 

धाऊ - अग्नि , 

छुट्यो - छूटना, अलग होना , वासुकनाग - सर्प नाग देवता


संक्षिप्त भावार्थ - साहब कबीर कहते हैं कि हमारी बोली वही लखेगा , देखेगा . परखेगा जो हमारी सोच व भूमिका का होगा । अब किनके संग व्यवहार करुंगा । कबीर सा . कहते हैं यदि साधू का बाना धारणा किया और उसेक सदज्ञान कर्म व रहणी गहणी की वास खुशबू चहुँओर यहीं फैली तो समझिये कि कुमति का बीज जला नहीं । अत : फिर वह समय आने पर अंकुरित होगा । इसी प्रकार जीवन की कड़वाहट परिपवक्ता होने पर मिठास में बदल जाती है और ज्यादा मिठास में भी कीड़े पड़ने लगते हैं । चारखान चार युग चार अवस्था में अलग - अलग स्थिति दिखाई देती है जबकि दिखाई एक जैसे हैं जैसे कोयल , कौवा , भंवरा , नाग परन्तु रहणी - हणी , करनी - कथनी , वाणी - वचनों में चारों अलग - अलग ईख ( सांटा ) में रस संगत व सानिध्य से अपने साहब व स्वाद में परिवर्तन होता है रंग रूप में भी इसलिए यदि इस क्षेत्र को चुने तो उसी के अनुसार जीवन को बाहर करे अन्यथा ना तो इधर के बाद उधर के इसलिए अंतर में कुमति दुर्गति रूपी बीज की गांठ को जलाकर खोदकर इस काया रूपी खेत से निकालने का प्रयास करें ताकि दुर्विचार जाते हैं । से मुक्त होकर सुविचार सुमति रूपी त्रिवेणी में स्नानकर निर्मल हो जाते है।


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