' मेहरम होय सोई लख पावे '
साखी
1- पारख रूप है साइयाँ , सब घट रहा समाय ।
चित्त चकमक लागे नहीं , यासे बुझि - बुझि जाय।।
2- अगम पंथ को मन गया , सुरति भई अगवान ।
कहै कबीरा मंडि रहा , बेहद के मैदान ।।
3- ( सब ) हद में बैठा कथत है , बेहद की गम नाहि ।
बेहद की गम होयगी , तब कुछ कथना नाहि ।।
भजन
टेक - मेहरम होय सोई लख पावै ऐसा देश हमारा ।
1- वेद किताब पार नहीं पाया , केहन सुनन से न्यारा
अष्टकमल नव दस के ऊपर , रहता पुरूष हमारा ॥
2- बिना बादल एक धामण धमके बिन सूर उजियारा
बिना नैन से वो माला पोवे , सत्य से शब्द उचारा ॥
3- सुन्न महल में बाजा रे बाजे किंगरी बीण सितारा
जो चढ़ देखे गगन गुफा में , दरसेगा अगम अपारा ॥
4- जल की बूंद गिरी जल माहि , ना मीठा ना खारा
कहै कबीर सुनो भाई साधो कोई पहुँचेगा गुरू प्यारा ॥
मालवी शब्द
धामण - गर्जना
धमके - आना पहुंचना
उचारा - कहन, उच्चारण करना
किगरी - आवाज एक वाद्ययंत्र की
दरसेगा - दिखना
संक्षिप्त भावार्थ- इस भेद वाणी में साहब कबीर बोधगम्य स्थिति को शब्द के रूप में निरूपित करते है । जो सत्य रूपी पुरुष सबमे विद्यमान हैं वेद शास्त्र या लफ्जो से परे हैं। जल जल में मिलकर वही समुद्र बन गईं। या निज स्वरूप में आ गई। इस स्थिति से वाकिफ होने के लिए हमे अपनी और मुड़कर इंद्रिमय व्यवहार से ऊपर उठकर मन की स्थिरता नवद्वार के ऊपर टिकाना पड़ेगा तब उस अनुभूति से अभिभूत सम्भव है।
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