' हम परदेश पंछी रे साधु '
साखी
1- ज्ञानी भूले ज्ञान कथि , निकट रहा निज रूप ।
बाहर खोजे बापूरे , भीतर वस्तु अनूप।।
2- कागज लिखे वो कागजी , की व्यवहारी जीव ।
आतम दृष्टि कहाँ लखे , जित देखे तित पीव।।
3- जो वह एक न जानिया , बहु जाने क्या होय ।
एके से सब होत है , सबसे एक न होय ॥
भजन
टेक - हम परदेशी पंछी रे साधु भाई , इणी देश का नाही
इणी देशरा लोग अचेता , पल - पल परलय में जाई।।
1- मुख बिन बोलना पग बिन चलना बिना पंखों से उड़ जाई ।
इना सूरत की लोय हमारी , अनहद माई ( ठहराई ) ओलखाई ॥
2- छाया में बैठू तो अग्नि सी लागे , धूप बहुत शितलाई ।
छाया धूप से मोरे सतगुरू न्यारा , मै सतगुरू के माई ॥
3- आठों पहर अड़ा रहे आसन , कबहूँ न उतरेगा साँई ।
ज्ञानी रे ध्यानी पचपच मर गया , उणी देश केरा माई ॥
4- निर्गुण रूपी है मेरे दाता , सिरगुण नाम धराई ।
मन पवन दोनों नहीं पहुँचे , उणी देश केरा माई ॥
5- नख - शिख नैन शरीर हमारा , सतगुरू अमर कराई ।
कहै कबीर मिलो निर्गुण से , अजर अमर हो जाई ॥
मालवी शब्द
इणी - इसी
अचेता- नासमझ, अचेत, सोया हुआ
लोय - लगन, इच्छा
ओलखाई - पहचानना, परिचय, दर्शाना
न्यारा - अलग
घराई - रखना, धरना
नख सिख- सिर से पेर तक
संक्षिप्त भावार्थ - इस निर्गुण भेद वाणी के माध्यम से सदगुरु कबीर भौतिक वैभव व इंद्रिमय व्यवहार के विचरित सुरति को शब्द में टिकाकर बिना मुख के बोलना , बिन पग के चलना , बिन पंखों से उड़ना की अनुभूति या छाया में धूप और धूप में शीतलता की अनुभूति की प्रत्यक्षानुभूति के कबीर साहब इस पदों से निर्गुण से मिलाने का संकेत करते हैं ।
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