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हर हर मारूंगा निसाणो / har har marunga nisano

' हर - हर मारूंगा निसाणो ' 


साखी

गगन मंडल के बीच में , जहाँ झलके है नूर । 

नुगरा महल न पावीया , पहुँचेगा कोई सूर ॥ 


भजन 

हर - हर मारूंगा निसाणो साधु चोट है असमान की ।

चोट है असमान की गुरू ज्ञान की सतनाम की । 

हर हर मारूंगा निसाणो साधू चोंट है असमान की हो ॥ 


1. तत्व की तलवार करलो , मन की कटार जी , 

शबदाँ री ढाल कर लो , गोली गुरू के नाम की ॥ 


2 . अर्ध में से उर्ध निकला ने तिरकुटी बन्दुक जी , 

प्रेम का पालीता कर लो , गोली लागी ज्ञान की ॥  


3. काया गढ़ में फौज लागी ने सुरा दोई आँथड्या , 

सूरा तोरण खेत रई गया , कायर भाग्या जाय जी ॥ 


4. साधु के संमुख रहना , पापी से पग दूर जी , 

साधु मिल गया सुघड़ वाला , पापी पर ले जायजी ॥ 


5 .जात का हम मूल धांवा ने नाम की परतीत जी , 

कहै कबीर सा सुनले गोरख , चाकरी हजूर की ॥ 


 मालवी शब्द 

आथड्या - लड़ना , भिड़ना , सुरा - योध्दा , 

ताकतवर , पलीता - पलटना , उलटना , पग - 

कदम ( पैर ) , सुघड़ - मांचा , अच्छा घड़ा हुआ घांवा - जाता , मानना , परतीत - लगाव , प्रेम , चाकरी - सेवा , हजूर - परमात्मा श्रेष्ठ सबसे बड़े 


  संक्षिप्त भावार्थ - इस पद में साहेब कबीर जो हाजिर हैं उनकी सेवा या जुडे रहने का संदेश शब्द रूपी चोट या लगाव जो इस कायारूपी रणक्षेत्र में सुरा बनकर तत्व की प्रत्यक्षानुभूति कर आगे बढ़ते हुए गगन मण्डल की सैर करने का संकेत करते है । जो सुघड़ , सुशाल , संयमिक सचे साधक के द्वारा नाम की प्रीति या धुन शब्द की प्रतीती से संभव है , जो मूल है , सार है सन जीव मान में एक है ।


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