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साधो एक रूप सब माहिं / sadho ek rup sab mahi

भजन 


साधो एक रूप सब माहिं।

अपने मनहीं बिचारि के देखो ,और दुसरो नाहीं ।।टेक।।


एकै तुचा रुधिर पुनि एके ,बिप्र सूद्र के माहिं । 

कहीं नारी कहिं नर, होइ बोलै गैब पुरुष वह आहीं ।। १ ।।   


 आपै ,गुरु होय मंत्र देत है ,सिष होय सबै  सुनाहीं।    

जो  जस गहै लहै तस मारग, तिन के सतगुरु आहीं ।।२ ।।  


सब्द पुकार सत्त मै भाषो ं ,अंतर राखो ं नाहीं।  

कहै ं कबीर ज्ञान जेहिं निर्मल ,बिरले ताहि लखाही  ।।३।।


शब्दार्थ - गैब =छिपा हुआ ,अगोचर। 


भावार्थ - हे संतो।सभी प्राणियों में एक सत्य -तथ्य हे। अपने मन में विचारकर देखो ,विश्वसत्ता में भेदभाव नहीं है। चाहे ब्राह्मण नाम हो और चाहे शूद्र ,सबमे एक समान चचाम ,रक्त आदि हैं। इन मिटटी केपिंजडो में जो अगोचर आत्मा हैं , वे कहीं स्त्री और कहीं पुरुष शरीर धारणकर उन्हीं की मान्यताओं को अपने में आरोपित कर वैसी ही बातें करते है।  कोई आत्मा कहीं गुरु बनकर उपदेश करता है और कोई आत्मा शिष्य बनकर उसे सुनता है।  जिनको जैसा गुरु मिलता है उसके उपदेश के अनुसार वह वैसा मार्ग ग्रहण करता है।  कबीर साहेब कहते है कि में निश्छल हो सत्य निर्णय खोलकर कहता हूँ , जिन बिरले को निर्मल ज्ञान हो जाता है उन्हें सत्य और असत्य साफ दिख जाता है। 


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