सम्वत् चौदहसौ पचपन विक्रमी , ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन सत्यपुरुषका तेज काशीके लहर तालाबमें उतरा । उस समय पृथ्वी और आकाश तक प्रकाशित हो गया । उसी समय अष्टानन्दजी वैष्णव उस तालाबपर बैठे थे और वृष्टि हो रही थी , बादल आकाशमें घिरे रहनेके कारण अंधकार छाया हुआ था , बिजली चमक रही थी ।
जिस समय वह नूर उस तालाबमें उतरा , उस समय तालाब जगमग जगमग करने लगा , फिर वह प्रकाश उस तालाबमें ठहरं गया । प्रत्येक दिशाएँ जगमगाहटसे परिपूर्ण हो गयीं । इस आश्चर्यमय प्रकाशको देखकर अष्टानन्दजी आश्चर्य चकित हो गये ।
उस समय उस लहर तालाबमें महाज्योति फैल रही थी . मयूर , चकोर आदि पक्षी बोल रहे थे । चिड़ियाँ चहचहा रही थीं , पनडुब्बियां फिर रही थीं , कमल तथा नीलकमलके पुष्प लहलहा रहे थे , भँवरे गूँज रहे थे । ऐसे समय वह तेज आकर उस तालाब में स्थिर हुआ ।
अष्टानन्दजी ने जो उस तेजको देखा तो जानकर उसका समस्त विवरण रामानन्द स्वामीसे कहा मुझको अत्यंत आश्चर्य हुआ , उस ज्योतिको आकाशसे उतरते और लहर तालाब में ठहरते देखा । जब वह प्रकाश उस तालाबमें उतरा तब समस्त तालाब ज्योतिर्मय हो गया । यह बात सुनकर स्वामी रामानन्दजीने अष्टानन्दजी से कहा कि , वह प्रकाश जो तुमने देखा था उसका फल शोधाही तुम्हारे देखने तथा सुननेमें आवेगा , उसकी धूम मच जावेगी ।
फिर वह तेज मनुष्यके बालकके आकारमें होकर उस जलके ऊपर कमलोंके पुष्पोंपर बालकोंके सदृश हाथ पाँव फेंकने लगा । वह बालक अलौकिक शोभा लिये अत्यंत सुंदर दिखलायी देता था । पश्चात् तो जैसा कि , रामानन्द स्वामीने अष्टानन्दजीसे कहा था इसकी धूम समस्त संसारमें मचगयी ।
कबीर मंसूर से
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