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धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई / dhire dhire chadna mere bhai

धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई


साखी 


1- पांच तत्व का पिंजरा , सोतो अपना नाय ।

अपना पिंजरा तहँ बसे , अगम अगोचर माय।।


2- सब के भीतर राम है , ऐसा आप सुजान ।

आप आज से बांधिया , आपे भया अजान ।।


3- एक बूंद से सब किया , देहिका विस्तार ।

सो तू क्यों बिसरिया , अंधा मूड़ गंवार ।।


भजन


टेक- धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई रे हंसा

संभल के चढ़ना मेरे भाई॥


1- लाख कोस और सोलह योजन , चढ़ने की गम नाहीं

पाव न टिके पपील कारे , कैसे चढ़ोगा मेरे भाई ।।

धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई रे हंसा

संभल के चढ़ना मेरे भाई॥


2 . आसपास तेरी सूरत सुहागन राग छत्तीसा गाई

इस रागन में भूल मत जाना , भवसागर के माहि ।

धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई रे हंसा

संभल के चढ़ना मेरे भाई॥


3 . राह सांकरा पंथ कठिन है , चढ़ना मुश्किल भाई

पवन खेंच उल्टा चढ़ाले , बीच सुखमना के माई ॥

धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई रे हंसा

संभल के चढ़ना मेरे भाई॥


4 . रामानंद मोय सतगुरू मिल गया , दीना भेद बताई

कहे कबीर सुनो भाई साधो , आवागमन मिट जाई ।

धीरे - धीरे चढ़ना मेरे भाई रे हंसा

संभल के चढ़ना मेरे भाई॥


मालवी शब्द

योजन- चारकोस ( दूरी का पैमाना )

पपील - चीटी

सांकड़ा - संकरा , बारीक 


संक्षिप्त भावार्थ - इस पद में साहब कबीर के धीरे - धीरे आध्यात्मिक यात्राको अंजाम  देने का कहा है क्योंकि रास्ता बहुत कठिन व संकरा है । बीच में भौतिक चकाचोंध रूपी रूकावटें बहुत हैं , कहीं ऐसा ना हो कि हम उसमें उलझजाएं । अपने निजघर पर पलटकर शुष्मना के घाट पर स्थापित हो जा , जो मानव मार्ग का एक ही घाट है ।


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